नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि समानता का मतलब यह नहीं कि उसमें वर्गीकरण नहीं हो सकता। कभी-कभी आवश्यक हो जाता है कि असमान लोगों को असमान तरीके से आंका जाए क्योंकि असमान परिस्थितियों से निकले व्यक्तियों को समानता के अधिकार से देखा जाएगा तो न्यायसंगत नहीं होगा।
हालांकि कोर्ट ने कहा कि यह वर्गीकरण मनमाने तरीके से नहीं होना चाहिए। यह लोगों के एक समूह के भीतर उसके लक्षण व उद्देश्य की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। यह तार्किक होना चाहिए। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने ये बातें बिहार सरकार के उस नियम को गलत व अनुपयुक्त बताते हुए कही जिसमें सामान्य मेडिकल ऑफिसर की भर्ती में सिर्फ सरकारी अस्पताल में काम का अनुभव रखने वाले डॉक्टरों को भारिता (वेटेज) देने की बात थी।
कोर्ट ने बिहार सरकार को डॉक्टर मीता सहाय के सेना अस्पताल में काम करने के तजुर्बे पर विचार कर दो माह में नई मेरिट लिस्ट जारी करने को कहा है। भेदभाव सांविधानिक शासन प्रणाली को चोट कोर्ट ने कहा, संविधान में गरीब व जरूरतमंद लोगों को चिकित्सा मुहैया कराने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों के अलावा निगम व पंचायती राज संस्थान सहित अन्य अथॉरिटी के स्तर पर अस्पताल होने की बात है। आर्मी अस्पताल भी इसी का हिस्सा है। लिहाजा ऐसे अस्पतालों से अनुभवप्राप्त लोगों को नजरअंदाज करने का कोई मतलब नहीं।
कोर्ट ने कहा, यह बात तार्किक नहीं है कि आर्मी अस्पताल का अनुभव बिहार सरकार के अस्पताल के काम करने के अनुभव से अलग है। दोनों में भेदभाव करने का प्रयास हमारे सांविधानिक शासन प्रणाली के चरित्र को चोट पहुंचाना है।
सरकारी डॉक्टर गरीबों की पीड़ा समझते हैं
हालंकि शीर्ष अदालत इस दलील से सहमत थी कि बिहार में अधिकतर गरीब व्यक्ति हैं, लिहाजा वैसे माहौल में करने वालों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सरकार की दलील थी कि निजी अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों का ज्यादातर गरीब मरीजों से सामना नहीं होता। कोर्ट ने माना कि गैर निजी अस्पतालों में मरीजों के प्रति डॉक्टरों का रवैया संवेदनशील होता है, क्योंकि वे गरीब मरीजों की पीड़ा बेहतर समझते हैं। ऐसे में सरकारी अस्पतालों में काम के अनुभव को नि:संदेह तवज्जो मिलनी चाहिए।