सरमा और सुवेंदु के राजनीतिक जीवन को देखें तो दोनों ने दल बदला है। एक कांग्रेस तो दूसरे तृणमूल छोड़कर आए हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों भाजपा की विचारधारा से प्रेरित होकर भगवा रंग में रंगे हैं।

असल में इनका एक ही मकसद है सत्ता के शिखर पर पहुंचना। कांग्रेस में रहते सरमा को लगा कि जिस तरुण गोगोई को वे अपना सियासी गुरु मानते हैं, वे अपने बेटे गौरव गोगोई को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश में हैं।

इसके बाद उन्होंने विद्रोह कर दिया। ठीक इसी तरह अपनी सियासी महत्वाकांक्षा को लेकर आगे बढ़ रहे सुवेंदु को जब पता चला कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तृणमूल की विरासत अभिषेक बनर्जी को सौंपना चाहती हैं तो उन्होंने भी बगावत कर दी।

इसके बाद वर्ष 2015 में सरमा तो नवबंर, 2020 में सुवेंदु भाजपा में शामिल हो गए। अब दोनों को अहम जिम्मेदारी देकर भाजपा ने उन नेताओं को बड़े संकेत दिए हैं, जो अन्य दलों से आए हैं या आने पर विचार कर रहे हैं।

अब तक कहा जाता था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या फिर भाजपा के पुराने सदस्यों को ही पार्टी में अहम पद मिलता है, जिसका उदाहरण मनोहर लाल और रघुवर दास हैं। यह प्रचलित था कि भाजपा में अन्य दलों से आए नेताओं को तुरंत अहम पद नहीं मिलता।

कई ऐसे नेता हैं, जिन्हें लंबे इंतजार के बाद पार्टी में पद मिला। वैसे तो इन दोनों की नियुक्ति को लेकर सियासी जानकारों की अलग-अलग राय है।

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