Afghanistan Crisis: लगभग पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बावजूद अभी एक इलाका ऐसा है, जहां से तालिबान के खिलाफ युद्ध की शुरुआत हो सकती है। एक ऐसा सक्षम नेता भी है, जो इस युद्ध का नेतृत्व कर सकता है। अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह (Amrullah Saleh) ने तालिबान के सामने हथियार डालने से साफ इंकार कर दिया है। काबुल पर तालिबान के कब्जे के बावजूद ना तो उन्होंने देश छोड़ा और ना ही संघर्ष। तालिबान के काबुल पहुंचने तक सालेह अंडरग्राउंड हो चुके थे। माना जाता है कि वो अपने अंतिम ठिकाने, काबुल के पूर्वोत्तर में स्थित पंजशीर घाटी पहुंच गये हैं। अफगानिस्तान में काबुल सहित देश के अधिकतर हिस्सों पर तालिबान का कब्जा हो चुका है। इसके बावजूद कई ऐसे इलाके हैं जहां के लोग तालिबान के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाए हुए हैं। इन्हीं में से एक है नॉर्दन अलायंस के पूर्व कमांडर अहमद शाह मसूद का गढ़ पंजशीर घाटी। यह इलाका हिंदुकुश के पहाड़ों के पास स्थित है।
अंडरग्राउंड होने के पहले सालेह ने ट्विटर पर लिखा था, ‘मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं करूंगा, जिन्होंने मुझे चुना। मैं तालिबान के साथ कभी भी नहीं रहूंगा, कभी नहीं.’ एक दिन बाद ही सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें सामने आईं, जिसमें पूर्व उप राष्ट्रपति अपने पूर्व संरक्षक और तालिबान विरोधी फाइटर अहमद शाह मसूद के बेटे के साथ पंजशीर में नजर आ रहे हैं। माना जा रहा है कि सालेह और मसूद के बेटे, जो कि मिलिशिया फोर्स की कमान संभालते हैं, पंजशीर में तालिबान के मुकाबले के लिए गुरिल्ला मूवमेंट के लिए फोर्स तैयार कर रहे हैं।
अब तक किसी के कब्जे में नहीं आई पंजशीर घाटी
अपनी नैसर्गिंक सुरक्षा के लिए मशहूर पंचशीर वैली 1990 के सिविल वार में भी तालिबान के कब्जे में नहीं आई। इसे एक दशक पहले सोवियत संघ भी नहीं जीत पाया था। राजधानी काबुल के नजदीक स्थित यह घाटी इतनी खतरनाक है कि 1980 से लेकर 2021 तक इसपर कभी भी तालिबान का कब्जा नहीं हो सका है। इतना ही नहीं, सोवियत संघ और अमेरिका की सेना ने भी इस इलाके में केवल हवाई हमले ही किए हैं, भौगोलिक स्थिति को देखते हुए उन्होंने भी कभी कोई जमीनी कार्रवाई नहीं की। यहां के लोगों का साफ कहना है कि हम तालिबान को पंजशीर में प्रवेश की इजाजत नहीं देंगे।
कौन हैं उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह?
उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने तालिबान के खिलाफ जंग का फैसला किया है और इसमें कोई शक नहीं कि ये सालेह के लंबे संघर्ष में से एक होगी। बहुत ही कम आयु में ही अनाथ हुए सालेह ने गुरिल्ला कमांडर मसूद के साथ 1990 के दशक में कई लड़ाइयां लड़ीं। उन्होंने तमाम सरकारों में सेवाएं दीं। 1996 में तालिबान ने जब काबुल पर कब्जा कर लिया, तो उनका पता जानने के लिए कट्टरपंथियों ने उनकी बहन को भी टार्चर किया था। पिछले साल टाइम मैगजीन के संपादकीय में सालेह ने लिखा था, ‘वर्ष 1996 में जो हुआ उसके कारण तालिबान के लिए मेरे विचार हमेशा के लिए बदल गए।’
1990 के दशक में अहमद शाह मसूद ने तालिबान के साथ अपने संघर्ष के दौरान बड़ी प्रतिष्ठा हासिल की थी। भारत भी उनकी मदद करता रहा है। कहा जाता है कि एक बार जब अहमद शाह मसूद तालिबान के हमले में बुरी तरह घायल हो गए थे, तब भारत ने ही उनको एयरलिफ्ट कर ताजिकिस्तान के एक एयरबेस पर इलाज किया था। यह भारत का पहला विदेशी सैन्य बेस भी है। इसे खासकर नार्दन अलायंस की मदद के लिए ही भारत ने स्थापित किया था।